बुधवार, 4 मार्च 2009

ये भी है मेरा महान भारत ...

तस्लीम (TSALIIM) पर यह पोस्ट पढ़ कर मन उद्द्वेलित हो गया भाई शिरीष खरे से अनुमति लिए बिना इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ , शायद इसी तरह कभी कोई आवाज़ बहरे कानों में पड़ जाय और महानगरों और माल्स की चकाचौंध से चुन्धियाये हमारे भाग्यविधाता जाग उठें----

मेलघाट में कुपोषण के कारण 10 हजार बच्‍चों की मौत

महाराष्‍ट्र के अमरावती जिले के मेलघाट जंगली क्षेत्र में 1993 से अब तक भुखमरी से 10 हजार 252 बच्चों की मौत हो चुकी है. यह अधिकारिक आकड़ा है लेकिन वास्तविक स्थिति इससे भी कई गुना बदतर है. अगर अधिकारिक आकड़े की पड़ताल की जाए तो हर साल यहां 700 से 1000 बच्चों को भूख से मरना पड़ता है. साल 2007-08 में जहां सबसे कम 447 बच्चे मारे गए वहीं 1996-97 को सबसे ज्यादा 1050 बच्चों को मौत के मुंह में जाना पड़ा।


1993 को सबसे पहले महाराष्‍ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने यहां का दौरा किया था. तब से सरकारी कार्यालयों में मेलघाट कुपोषण की चर्चा तो चलती है लेकिन वह वास्तविक असर से कोसो दूर रहती है. इस साल भी मरने वाले बच्चों का अधिकारिक आकड़ा 500 को पार कर चुका है।

सबसे ज्यादा बच्चे बरसात में मरते हैं. इस मौसम में कोरकू आदिवासी काम के लिए घर से बाहर नहीं निकल पाते. इसलिए उनके यहां भोजन का संकट आ जाता है. तब वह अपना पेट भरना बड़ा काम समझते हैं. इस दौरान कोरकू महिलाएं अपने गहनों को साहूकार के पास गिरवी रखकर अनाज उठाती हैं. वह साहूकार से ऊंची ब्याज-दर पर कर्ज लेती हैं और उसे दीवाली तक चुकाने का वादा करती हैं. जिन घरों में भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती वहां के बच्चों का शरीर सिकुड़ जाता है. जून से अगस्त के महीने में बाल मृत्यु-दर के साथ-साथ माता मृत्यु-दर में भी इजाफा होता है. जो महिलाएं कम उम्र में गर्भवती बनती है उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं. वह पर्याप्त भोजन और डॉक्टरी इलाज का खर्च नहीं जुटा पाती. ऐसी महिलाएं घर और खेतों में लगातार काम करती रहती हैं. उन्हें शारारिक और मानसिक आराम नहीं मिलने से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं घेर लेती हैं. इनमें से कुछ महिलाओं को तो प्रसव के 5 दिनों बाद ही खेतों में जाना पड़ता है।


यहां की 60 फीसदी आबादी भूमिहीन है. बाकी 40 फीसदी आबादी में से भी ज्यादातर के पास 1 से 2 एकड़ पथरीली जमीन है. इसलिए यहां के सभी लोग काम के लिए खेतों पर निर्भर हैं. दिसंबर के महीने से उन्हें चना और गेहूं के खेतों में काम करने का मौका मिल जाता है. लेकन जनवरी के तीसरे सप्ताह तक यह सारे काम खत्म हो जाते हैं. तब यहां के मजदूरों को काम की तलाश में दूसरे इलाकों की तरफ जाना पड़ता है. यह पलायन कई बच्चों और महिलाओं को शोशण सहने के लिए मजबूर करता है. इस शोषण से कुपोषण का गहरा संबंध होता है. इस दौरान खासकर भूखे बच्चे यहां-वहां भटकने से बीमार पड़ते हैं. दिवाली के बाद बाहर जाने वाले बच्चे होली पर ही अपने गांव लौट पाते हैं. तब उनके पेट बड़े और हाथ-पावं सूखी लकड़ी की तरह दिखाई देते हैं. ऐसे में कुपोषण के बारे में जानकारी न होने से मुश्किलें बढ़ती हैं।

भुखमरी के अंदरूनी भाग में रोजगार और भोजन की असुरक्षा से जुड़े तथ्य मौजूद हैं. मेलघाट में आदिवासियों के पास रोजी-रोटी के साधन नहीं हैं. जैसा कि रोजगार गांरटी योजना के आकड़ों से जाहिर होता है कि जहां चिखलदरा तहसील में 17 हजार 584 जॉब-कार्ड बांटे गए वहीं धारणी तहसील में 58 हजार 325. लेकिन इस योजना के तहत चिखलदरा तहसील में अब तक 2 हजार 26 और धारणी तहसील में 12 हजार 476 मजदूरों को ही काम मिल सका है. रोजगार की मांग के इस स्तर को देखते हुए शासन के लिए काम मुहैया कराना बड़ी चुनौती है. इन दिनों वन-विभाग द्वारा जंगल में होने वाले काम भी लगभग ठप्प पड़े हैं. इसलिए 15 सालों में कुपोषण की स्थिति पहले से अधिक बिगड़ती जाती है।


कुपोषण से लड़ने में प्रशासनिक रवैया सबसे बड़ी बाधा है. वह ऐसे मामलों से बचने की कोशिश करता है. 1996-97 को `प्रेम´ संस्था ने चिखलदरा तहसील के 42 बच्चों को कुपोषण के चौथे ग्रेड पाया था. यह सूची जब अखबारों के जरिए प्रकािशत हुई तो जिला स्वास्थ्य केन्द्र के अधिकारियों ने उसे झूठा बताया. इसके बाद जिला स्तर पर कमेटी बनाई गई जिसमें सरकारी डॉक्टरों ने हतरू गांव जाकर बच्चों का वजन तौला. इन बच्चों का वजन `प्रेम´ द्वारा जारी सूची के हिसाब से सही निकला. इसके बाद कमेटी ने आंगनबाड़ियों को बच्चों के खानपीन और स्वास्थ्य पर ध्यान देने के लिए कहा. इसी तरह महाराष्‍ट्र में 1997 को बनी बीपीएल के आधार पर राशन वितरित होता है। इस सूची से जहां कई परिवारों के नाम छूट गए थे वहीं नए परिवारों को जोड़ा नहीं जा सका है. इसका नुकसान यहां के हजारों आदिवासी परिवारों को भी भुगतना पड़ रहा है. इनमें से ज्यादातर परिवारों की आर्थिक हालत बेहद खराब है. यह सारे कारक मिलकर यहां के कुपोषण को बेकाबू कर चुके हैं. प्रदेश सरकार के पास न बजट की कमी है और न ही संसाधनों की. मेलघाट की स्थिति व्यवस्था की संवेदनहीनता का नतीजा है. अन्यथा कुपोषण न मिटने वाली इबारत भी नहीं.

लेखक- शिरीष खरे

रविवार, 30 नवंबर 2008

६० घंटे का रियलिटी शो

क्या कोई बताएगा की पिछले तीन दिनों में किस चैनल की टी आर पी क्या थीपूरा देश भले ही आतंकियों को कोस रहा हो, हमारे टी वी चैनल वालों को उनका शुक्रगुजार होना चाहिएआप सोच रहे होंगे ये यह क्या सब लिख रहा हैमगर गौर करिए पिछले दिनों परटी वी के न्यूज चैनलों पर लाइव रिपोर्टं के नाम पर हम जो देखते रहेमानो यह भी कोई मनोरंजन का प्रोग्राम होकिसी भी चैनल पर किसी हेल्पलाइन का नंबर नहीं, किसी घायल के बारे में , अस्पताल के बारे में कोई सूचना नहीपता चला घायलों की जरूरत के लिए रक्त की कमी पड़ गई थीपर इस सम्बन्ध में किसी चैनल पर कोई अपील नहींबस बार बार गोलियों की आवाज़, जलते हुए ताज की तस्वीरे और बिना रुके बकवास करते अधकचरे संवाददाताओं की उत्तेजनातिरेक भरी शक्लेंकिसी चैनल वाले को इतनी भी अक्ल नहीं थी की सोच सके की टी वी आतंकवादियों के बाहर बैठे साथी भी देखरहे होंगेआतंकवादियों के पास सेटलाईट फोन है और उन्हें अपने बाहर के साथियों से कमांडोज की पोजीशन और उनकी योजना और गतिविधि के बारे में सूचना मिल सकती हैनेताओं की (यद्यपि मुझे उनसे भी कोई सहानुभूति नहीं है) एक एक बात का छिद्रान्वेषण करने वाले इन महानुभावों की मूर्खता से आतंकियों को कितनी सहायता मिली और उससे सुरक्षाबलों को क्या नुकसान हुआ इस बात का कोई अनुमान सम्भव नहीं है। कहीं समाचार जैसी कोई चीज़ नहीं मानो क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुन रहें हों। कितनी बार अलग अलग चैनल के संवाददाता सुरक्षाबलों के प्रवक्ताओं के मुंह में शब्द ठूंसते देखे गए और एकाध बार तो झिड़क भी दिए गए। कहीं किसी को कोई सूचना देने की कोशिश नहीं देखी गई जिससे अफवाह और उत्तेजना न फैले। और जैसे ही आतंकियों पर काबू पा लिया गया ये गिद्ध टूट पड़े विभिन्न शहीदों के अन्तिम संस्कार की ओर । इतने संवेदनशील और वेदनापूर्ण क्षणों में मूर्खतापूर्ण आलाप करते इन लोगों को देखना सुनना एक त्रासद अनुभव था। पता नहीं कब हमारा मीडिया जिम्मेदार होगा और टी आर पी से ऊपर उठेगा। निश्चय ही प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता का बहुत महत्त्व है किंतु यह महत्त्व देश और समाज के वृहत्तर हितों के कारण ही है। केवल स्वतंत्रता के लिए स्वतंत्रता का कोई औचित्य नहीं। मीडिया-मठाधीशों को स्वयं को नियंत्रित करने और निर्देशित करने के लिए एक कठोर आचार संहिता बनाने और उसका अनुपालन करने के बारे में सोचना चाहिए अपने और जनता के भले के लिए।

रविवार, 28 सितंबर 2008

भगवान की पत्नी

एक ठंडी रातमाल के बाहर एक छोटी लड़की खड़ी ठण्ड से काँप रही थीउसके पैरों में जूते नहीं थेकपडे भी साधारण से पहने थीवह सोच रही थी की भगवान अगर उसे जूते दिला देता तो.... । तभी एक महिला की नज़र उस पर पड़ीमहिला उसे प्यार से अपने साथ माल के अन्दर ले गईउसने उस लड़की के लिए जूते, मोजे और दस्ताने खरीदे। उसे नया स्वेटर दिलवायाउसके कानो पर नया मफलर लपेटते हुए पूछा अब ठीक है। 'जी' लड़की ने धीरे से कहाअच्छा अब चलते हैं- कह कर वह महिला बालिका को माल के बाहर छोड़ कर जाने लगी
'सुनिए' लड़की ने महिला को पुकारा।
'हाँ बेटे बताओ' महिला ने मुड़ते हुए पूछा ।
'क्या आप भगवान की पत्नी हैं' लड़की ने प्रश्न किया।

(कई साल पहले टाइम्स आफ इंडिया में छपी लघुकथा की स्मृति के आधार पर)

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

अंधेरे में नूर

एक तरफ़ जहाँ जात पात और मजहबी दीवारें लोगों के बीच दूरियां बढ़ा रही हैं वहीं वाराणसी की नूर फातिमा रोज़ा और शिव की पूजा साथ साथ करतीहैं। पांचो वक्त की नमाजी नूर फातिमा पेशे से वकील हैं। उन्होंने भगवान शिव का मन्दिर बनवाया है, जिसमें उनकी उतनी श्रद्धा है जितनी अल्ला ताला में। नूर के मुताबिक , शिव मन्दिर बनवाने का आदेश ख़ुद भगवान शंकर ने उन्हें सपने में दिया था। आजकल रमजान के महीने में उनकी जिम्मेदारियों बढ़ गई है। रोज़ा के साथ साथ उन्हें भगवान शिव की आरती भी करनी पड़ती है। नूर कहती हैं की वह शंकर जी की आरती करने के बाद ही रोज़ा खोलती हैं। नूर बेहद व्यस्त रहती है , लेकिन व्यस्तता में भी वह न तो सुबह की नमाज़ भूलती हैं और न तो रुद्राक्ष माला पर शिव का जाप। १०८ बार 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करने के बाद ही वह अदालत जाती हैं। शाम की आरती करके वह अपने परिवार के साथ रोजा खोलती हैं। नूर कहती हैं की रमजान का महीना सबसे मुक़द्दस महीना होता है। यह आपस में प्रेम व भाईचारा बढ़ाने के लिए आता है। उनके मुताबिक अल्ला, ईश्वर और गाड सब एक ही खुदा के नाम हैं।
(२२ सितम्बर २००८ को नवभारत टाइम्स में छपी ख़बर से साभार )

नूर फातिमा जी आप वाकई अंधेरे में नूर जैसी हैं। आप को सलाम।